29.4.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

जब "सदगुरु" शब्द ह्रदय के तारों को झंकारता है तो तुरंत साईं की स्मृति हो जाती है I यथार्थ मे वे ही तुम्हारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं और अपना बरद-हस्त तुम्हरे ह्रदय पर रखते हैंI

(CI 2 Adhaya 06 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria )

26.4.10

भगवान समझाते है

......तुम्हारा कोई कुछ छीन नहीं लेगा, तुम अपने स्वरूप को पहचानो ......तुम चैतन्य आत्मा हो ! अनित्य है तो यह शरीर और नित्य है यह आत्मा ; मिटने वाला तत्व तो है शरीर और जो मिटने वाला है उसकी चिंता क्यों करते हो --
आएगी जाएगी मिलेगी छूटेगी ----
संसार है ही संयोग तथा वियोग का स्वरूप ! ! !

23.4.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

अपने गुरु के चरणों मे पूर्ण समर्पण करना या अपने शिष्य को हर प्रकार से अपना मान लेने से अच्छी अवस्था अन्य कोई नहीं है I ऐसे सम्बन्ध के बिना कोई भी इस सांसारिक जीवन के भवसागर को पार नहीं कर सकता I

(CI 155 Adhaya 05 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria )

22.4.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, वैद्य, ज्योत्षी, ईशवर और गुरु मे जैसा तुम्हरा विशवास होगा, वैसा ही तुम्हे फल मिलेगा I

(CI 64 Adhaya 22 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria )

17.4.10

माँ-बाप को भूलना नहीं

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।
उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।
पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।
पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।
मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।
अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।
कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।
पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।
लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।
सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।
सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।
जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।
सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।
माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।
जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।
उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।
धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?
पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।

16.4.10

परिश्रम के लिए मजदूरी

एक दिन बाबा ने राधाकृषणमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा. तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया. बाबा उनके घर पर चढ़ गए और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दुसरे छोर से नीचे उतर आये .इसका अर्थ किसी को समझ में नहीं आया राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी इसलिए हो सकता है की उनका ज्वर दूर करने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया हो. नीचे उतरने के पश्चात शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रुपैये पारिश्रमिक स्वरुप दिए. तब एक व्यक्ति ने साहस कर उनसे पुछा की इतने अधिक पैसे देने का क्या अर्थ रखता है ? तब बाबा ने कहा " किसी से बिना उसके परिश्रम  का मूल्य चुकाए कार्य न करना चाहिए और कार्य करने वाले को उसके श्रम का शीघ्र  निपटारा कर उदार ह्रदय से मजदूरी देनी चाहिए." ....... ॐ साईं राम   

14.4.10

बाबा के मधुर अमृतोउपदेश

एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निमिन्लिखित सुन्दर उपदेश दिया :
" तुम चाहे कहीं भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परन्तु यह सदैव स्मरण रखो की जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात  है. मई ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घाट - घाट में व्याप्त हूँ. मेरे ही उदार में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए हैं. मै ही समस्त ब्रह्माण्ड का नियन्त्रनकर्ता व संचालक हूँ. मैं ही उतपत्ति ,स्थिति  व संहारकर्ता हूँ. मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता. मेरे ध्यान  की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश  में फँस जाता है. समस्त जन्तु, चीटियाँ तथा दृश्यमान , परिवर्तमान और स्थायी विश्व ही मेरा स्वरुप  है."  

10.4.10

बाबा की भक्त परायणता

बाबा भक्तों को उनकी इच्छा अनुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन नहीं था. एक अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थीं, जिसे देखकर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे की " मां कृपा कर धीरे से पेट दबाओ, इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और नाड़ियाँ ही टूट जाएँगी. वे लोग अभी इतना कह भी नहीं पाए थे की बाबा अपने आसन से तुरंत उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गए. उनको कोई रोक सके ऐसा साहस किसी में नहीं था. उन्होंने दोनों हांथों से अपने सटके का एक छोर पकद कर नाभि में लगाया और दूसरा छोर ज़मीन पर रख कर उसे पेट से धक्का देने लगे. ऐसा प्रतीत होने लगा की वह पेट में छेद कर प्रवेश कर जायेगा.सभी किंकर्तव्यमूढ़ हो रहे थे. उन लोगों का मौसी बाई को सिर्फ इतना संकेत देने का था की वो सहज रीति से सेवा करैं. किसी की इच्छा बाबा को या मौसी को कष्ट पहुचाने की नहीं थी. परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कण मात्र भी न होने देना चाहते थे. कुछ देर बाद बाबा का क्रोध शांत हो गया और वो सत्का छोड़ कर पुन: आसन पर विराजमान हो गए.

इस घटना से बाबा ने अपने भक्तों को यह शिक्षा प्रदान की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा कि सेवा करने देंगे. केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आंकने में समर्थ थे. ॐ साईं राम  

9.4.10