30.6.10

मंजिल एक राह अनेक-

और जितने राही हो उतनी ही राहें निर्मित हो जाये तो कौन रोकने वाला है
यक़ीनन राहें विभिन्न होंगी तो तरीके भी विभिन्न होंगे
मुख्यता: खेल तो रुझान का है कि कौन कहाँ मंजिल माने
वस्तुत: जिसका जो अनुशरण करेंगे वह उनके द्वारा निर्मित राह पर ही बढेंगे
हर राह पर,,,,बीच बीच में,,,, मदारी भी मिलेंगे जो वही मंजिल मान कर बैठ गए
हो सकता है कि उनके खेल में हम आगे जाना या वापस आना ही भूल जाये
कौन मदारी अपने ग्राहकों से आगे जाने को कहेगा
यक़ीनन हमें ही इस बार कुछ तैयारियों के साथ चलना होगा
हमें अपने स्वभाव में भेद विज्ञान कि कला जाग्रत करनी होगी
हमें परमाणुयों से निर्मित हर पदार्थ (पुद्गल) के विज्ञान को जानना होगा
मिथ्यात्व को बढाने वाले कारणों को जानकार उनसे दूर रहना होगा

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

इद्रियों के अधीन कभी भी नहीं होना चाहिए I लेकिन हमेशा उन्हें भी दबाया नहीं जा सकता I प्रसंगानुसार विधिपूर्वक हमें उनका गति अबरोध करना चाहिए I

29.6.10

Sai Says:

“I will not allow my devotees to come to harm.”

28.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

सदगुरु तो केवल भक्तो का भक्ति भाव और विशवास देखकर ही उन्हें ज्ञान दे देते हैं I उसे समझना इतना सरल हो जाता है, मानो वह आपकी हथेली में ही रखा हो और वे मोक्ष की प्राप्ति भी करा देते हैं I जिसके लक्षण परमानन्द की अनुभूति होना हैं I

"When he sees the faith and devotion of the devotees, he gives the wealth of happiness due to moksha in the palm of the hands most easily."

Sai Says:

“God has agents everywhere and their powers are vast.”

27.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

जिस प्रकार नदी या समुंदर पार करते समय नाविक पर विशवास रखना पड़ता है, उसी प्रकार का विशवास हमे भवसागर से पार होने के लिये सदगुरु पर करना चाहिये I "When one wishes to cross the ocean, one must have faith in the navigator; similarly to cross the samsaric ocean one must have faith in the Guru."

Message of The Day

No One will Manufacture A LOCK without A Key ! Similarly God Won't Giv Problems Without A Solution.So Defeat Ur Problems With Confidence...

26.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

"जब सदगुरु नाव के नाविक हो, तब सच्चे और निष्कपट भक्त तीन प्रकार के कष्टों- आधिभोतिक, आध्यात्मिक और आधिदेविक पर विजय प्राप्त कर लेते हैं I "

Sai Says:

“If you avoid rivalry and dispute, God will protect you.”

25.6.10

Peace of mind

"Once a man went off in search of peace, finding his city life too loud and busy. Hoping to find it amidst nature's pristine solitude, he sat down in a relatively quiet spot in the forest and began his contemplation. But he couldn't continue because the sound of a frog croaking irritated his mind. So he got up and moved off to another place. But then all he could hear was the chirping of the crickets. He moved to another spot, but then the sound of the chirping birds started to annoy him. So again, he picked himself up and moved to another area where he built himself a little cottage, and sat inside with all the doors and windows closed, so as not to be disturbed by any noise. "But then, all of a sudden, all he could hear was the "tick, tick, tick" of his wristwatch. So, he removed his watch and kept it aside. Again he tried to find some peace and quiet, but now, the sound of his heartbeat suddenly felt very loud and distracted him. In this way, the man was never able to find any quiet place.
"Children, Real peace and silence is not to be found in the external world. It is a state of mind. It is not the external conditions that we need to overcome. Rather, it is our own minds that we need to control and overcome. If we are at peace internally, any external disturbance will never distract us. Living in the midst of everything, we should learn to gain peace of mind!"

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

"जहाँ अनन्य भाव से गुरु की सेवा होगी, वहां सांसारिक जीवन के दुःख और कष्टों का बिनाश हो जाएगा I फिर न्याय अथवा मीमांसा या दर्शनशास्त्र आदि और अन्य बोद्धिक प्रयतन की भी कोई आवश्यकता नहीं होती"

24.6.10

Sai Says:

“The giver gives, but really he is sowing the seed for later: the gift of a rich harvest.”

23.6.10

संदेश

भेष-भूषा अक्सर भ्रमित करने के लिए भी धारण कि जा सकती है दरअसल हमारे द्वारा ही ये व्यवस्था निर्धारित कि गई है कि किसका भेष कैसा हो
ये सारी व्यवस्थाये मात्र उपरी बदलाव को प्रदर्शित करती है वास्तव में भीतर के बदलाव का भेष-भूषा से कोई सम्बन्ध नहीं है क्रष्ण अटखेलियाँ करते, युद्ध करते हुए भी संत हो सकते हैं संत,,, साधू के लिबास में भी कंस हो सकते है कैसे निरख सकोगे भीतर के संत को,,,दोहा चोपाई तो कोई भी रट लेता है वास्तव में तो व्यक्तित्व किसी लिबास या भेष का मोहताज नहीं है भेष बदलकर व्यक्ति दूसरों को ही नहीं खुद को भी भ्रमित करता है दरअसल इस भ्रम में भी अस्थाई आनंद छुपा है कैसी अनोखी व्यवस्थाएं है संसार कि वास्तव में ये व्यवस्थाएं संसारी होने का परिचय मात्र है
((((( वास्तविकता इन सबसे परे है ))))) ----

22.6.10

Om Sai.....

“The Moral Law is inexorable, so follow it, observe it, and you will reach your goal: God is the perfection of the Moral Law.”

21.6.10

Sai Says

“I shall be ever active and vigorous even after leaving this earthly body.”

20.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

"याद रखो की जो सब प्राणियों में मेरे दर्शन करता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय हैंI इसलिए द्वेत या भेदभाव की भावना छोड़ दो I मेरी सेवा करने का यही तरीका हैं I"
(CI 130 Adhaya 09 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

Sai Says

“My devotees see everything as their Guru.”

19.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

चाहे वह भाकरी हो या भाजी या वह पेड़ा हो, अगर वह भक्ति पूर्वक अर्पण किया गया हो तो उसकी बात ही निराली है I ऐसे अडिग विश्वास  को देखकर तो साईं का ह्रदय प्रेम से उमंड पड़ेगा I
(CI 67 Adhaya 09 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

Sai Says

“I am formless and everywhere.”

18.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

आप बाबा के लिए चाहे कुछ भी भेजें और चाहे किसी के हाथ भेजें, बशर्ते की वह श्रद्धा और प्रेम भाव के साथ भेजा गया हो, बाबा निश्चित रूप से भेंट देने वाले के भूल जाने पर भी उसे याद दिलवाकर उससे वह छोटी सी भेंट भी प्राप्त कर लेते थे I
(CI 66 Adhaya 09 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

17.6.10

श्री साईं प्रार्थना



 सदा सदा साईं पिता ,मन में करो निवास,
सच्चे ह्रदय से करू, तुम से यह अरदास,
कारण करता आप हो,सब कुछ तुमरी दात,
साईं भरोसे मैं रहू , तुम्ही हो पितु मातु,
विषयों में मैं लीन हूँ , पापो का नहीं अंत,
फिर भी तेरा तेरा हूँ, रख लियो भगवंत,
रख लियो हे राखन-हारा,साईं गरीब निवाज,
तुझ बिन तेरे बालक के कौन सवारे काज,
दया करो दया करो, दया करो मेरे साईं,
तुझ बिन मेरा कौन है,बाबा इस जग माही,
मैं तो कुछ भी हु नहीं,सब कुछ तुम हो नाथ,
बच्चों के सर्वस प्रभु,तुम सदा हो मेरे साथ

16.6.10

संदेश

एक राजा जिस साधु-संत से मिलता, उनसे तीन प्रश्न पूछता। पहला- कौन
व्यक्ति श्रेष्ठ है? दूसरा- कौन सा समय श्रेष्ठ है? और तीसरा- कौन सा
कार्य श्रेष्ठ है? सब लोग उन प्रश्नों के अलग-अलग उत्तर देते, किंतु राजा को
उनके जवाब से संतुष्टि नहीं होती थी। एक दिन वह शिकार करने जंगल में गया।
इस दौरान वह थक गया, उसे भूख-प्यास सताने लगी। भटकते हुए वह एक आश्रम में पहुंचा। उस समय आश्रम में रहने वाले संत आश्रम के फूल-पौधों को पानी दे रहे थे।
राजा को देख उन्होंने अपना काम फौरन रोक दिया। वह राजा को आदर के साथ
अंदर ले आए। फिर उन्होंने राजा को खाने के लिए मीठे फल दिए। तभी एक
व्यक्ति अपने साथ एक घायल युवक को लेकर आश्रम में आया। उसके घावों से खून
बह रहा था। संत तुरंत उसकी सेवा में जुट गए। संत की सेवा से युवक को बहुत
आराम मिला। राजा ने जाने से पहले उस संत से भी वही प्रश्न पूछे। संत ने
कहा, 'आप के तीनों प्रश्नों का उत्तर तो मैंने अपने व्यवहार से अभी-अभी
दे दिया है।'
राजा कुछ समझ नहीं पाया। उसने निवेदन किया, 'महाराज, मैं कुछ समझा नहीं।
स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें।' संत ने राजा को समझाते हुए कहा,
'राजन्, जिस समय आप आश्रम में आए मैं पौधों को पानी दे रहा था। वह मेरा
धर्म है। लेकिन आश्रम में अतिथि के रूप में आने पर आपका आदर सत्कार करना
मेरा प्रधान कर्त्तव्य था। आप अतिथि के रूप में मेरे लिए श्रेष्ठ व्यक्ति
थे। पर इसी बीच आश्रम में घायल व्यक्ति आ गया।
उस समय उस संकटग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा का निवारण करना भी मेरा कर्त्तव्य
था, मैंने उसकी सेवा की और उसे राहत पहुंचाई। संकटग्रस्त व्यक्ति की
सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। इसी तरह हमारे पास आने वालों के आदर
सत्कार करने का, उनकी सेवा-सहायता करने का समय ही श्रेष्ठ है।' राजा
संतुष्ट हो गया।

संदेश

जीवन में ऐसे कर्म किये जायें कि एक यज्ञ बन जाय। दिन में ऐसे कर्म करो कि रात को आराम से नींद आये। आठ मास में ऐसे कर्म करो कि वर्षा के चार मास निश्चिन्तता से जी सकें। जीवन में ऐसे कर्म करो कि जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात हो जाय।

15.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

साईं समस्त प्राणियों को समान दृष्टी से देखते थे I उन्हें "मैं" और "मेरा" से कोई मोह नहीं था I वे सभी प्राणियों से प्रेम करते और उनमे भागवत दर्शन का अनुभव करते थे I
(CI 89 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

संदेश

जैसे सोना जब खान के अन्दर था तब भी सोना था, अब उसमें से आभूषण बने तो भी वह सोना ही है और जब आभूषण नष्ट हो जायेंगे तब भी वह सोना ही रहेगा, वैसे ही केवल आनंदस्वरूप परब्रह्म ही सत्य है।चाहे शरीर रहे अथवा न रहे, जगत रहे अथवा न रहे, परंतु आत्मतत्त्व तो सदा एक-का-एक, ज्यों का त्यों है।

14.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

गुरु के अलावा और कोई नहीं जानता की इस मानव शरीर को वास्तव मे मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार करवाई जाती है I वह केवल तभी होता है, जब गुरु उन्हें अपने हाथो मे लेते है तो जड़ और अज्ञानी प्राणियों का भी उद्धार हो जाता है I
(CI 80 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

कुसंग से बचो, सत्संग करो

दो नाविक थे। वे नाव द्वारा नदी की सैर करके सायंकाल तट पर पहुँचे और एक-दूसरे से कुशलता का समाचार एवं अनुभव पूछने लगे। पहले नाविक ने कहाः "भाई ! मैं तो ऐसा चतुर हूँ कि जब नाव भँवर के पास जाती है, तब चतुराई से उसे तत्काल बाहर निकाल लेता हूँ।" तब दूसरा नाविक बोलाः "मैं ऐसा कुशल नाविक हूँ कि नाव को भँवर के पास जाने ही नहीं देता।" अब दोनों में से श्रेष्ठ नाविक कौन है ? स्पष्टतः दूसरा नाविक ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह भँवर के पास जाता ही नहीं। पहला नाविक तो किसी न किसी दिन भँवर का शिकार हो ही जायगा। इसी प्रकार सत्य के मार्ग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले पथिकों के लिए विषय विकार एवं कुसंगरूपी भँवरों के पास न जाना ही श्रेयस्कर है। अगर आग के नजदीक बैठोगे जाकर, उठोगे एक दिन कपड़े जलाकर। माना कि दामन बचाते रहे तुम, मगर सेंक हरदम लाते रहे तुम।। कोई जुआ नहीं खेलता, किंतु देखता है तो देखते-देखते वह जुआ खेलना भी सीख जायगा और एक समय ऐसा आयगा कि वह जुआ खेले बिना रह नहीं पायेगा। इसी प्रकार अन्य विषयों के संदर्भ में भी समझना चाहिए और विषय विकारों एवं कुसंग से दूर ही रहना चाहिए। जो विषय एवं कुसंग से दूर रहते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं। जिस प्रकार धुआँ सफेद मकान को काला कर देता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग नेक व्यक्ति का भी पतन कर देते है।
'सत्संग तारे, कुसंग डुबोवे।'
जैसे हरी लता पर बैठने वाला कीड़ा लता की भाँति हरे रंग का हो जाता है, उसी प्रकार विषय-विकार एवं कुसंग से मन मलिन हो जाता है। इसलिए विषय-विकारों और कुसंग से बचने के लिए संतों का संग अधिकाधिक करना चाहिए। कबीर जी ने कहाः
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत। साकुट काली कामली, धोते होय न सेत।।
कबीर संगत साध की, दिन-दिन दूना हेत। साकत कारे कानेबरे, धोए होय न सेत।।
अर्थात् संत-महापुरूषों की ही संगति करनी चाहिए क्योंकि वे अंत में निहाल कर देते हैं। दुष्टों की संगति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके संपर्क में जाते ही मनुष्य का पतन हो जाता है।
संतों की संगति से सदैव हित होता है, जबकि दुष्ट लोगों की संगति गुणवान मनुष्यों का भी पतन हो जाता है।

संदेश

जिस प्रकार वस्त्र शरीर से भिन्न हैं, वैसे ही आत्मा शरीर से भिन्न हैं, आकाश की तरह सबमें व्यापक हैं। शरीर को जो इन्द्रियाँ मिली हुई हैं, उनके द्वारा शुभ कर्म करने चाहिए। सदैव शुभ देखना, सुनना एवं बोलना चाहिए।

13.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

जब तक शरीर का पतन नहीं होता, तब तक आत्मज्ञान को प्राप्त करने का यतन करो I इस नर जन्म का एक क्षण भी व्यर्थ मत गवाओं I
(CI 78 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

12.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

मानव जीवन के चार ध्येयो यानि अर्थ, धर्म, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति का मानव शरीर के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है I जो नर अध्यन कर इन्हें प्राप्त करने के उपाय जानने का प्रयतन करता है, वह नारायण पद प्राप्त कर लेता है I
(CI 77 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

*जय श्री राधे कृष्ण *

बोल सको तो मीठा बोलो,
कटु बोलना मत सीखो ,
जला सको तो दिये जलाओ ,
दिलो को जलाना मत सीखो ,
मिटा सको तो क्रोध मिटाओ ,
प्रेम मिटाना मत सीखो ,
बिछा सको तो फुल बिछाओ ,
सुल बिछाना मत सीखो ,
लगा सको तो बाग लगाओ ,
आग लगाना मत सीखो ,
और जा सको तो सत्संग जाओ ,
कुसंग जाना मत सीखो ,,,,,,,.
*श्री राधे राधे बरसाने वाली राधे ...........बरसाने वाली राधे हमें ...श्याम से मिला दे ..*

11.6.10

रूचि और आवश्यकता

ऐसा कोई मनुष्य नहीं मिलेगा, जिसके पास कुछ भी योग्यता न हो, जो किसी को मानता न हो। हर मनुष्य जरूर किसी न किसी को मानता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें जानने की जिज्ञासा न हो। वह कुछ न कुछ जानने की कोशिश तो करता ही है। करने की, मानने की और जानने की यह स्वतः सिद्ध पूँजी है हम सबके पास। किसी के पास थोड़ी है तो किसी के पास ज्यादा है, लेकिन है जरूर। खाली कोई भी नहीं। हम लोग जो कुछ करते हैं, अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। गलती क्या होती है कि हम आवश्यकता के अनुसार नहीं करते। रूचि के अनुसार मानते हैं, आवश्यकता के अनुसार नहीं जानते। बस यही एक गलती करते हैं। इसे अगर हम सुधार लें तो किसी भी क्षेत्र में आराम से, बिल्कुल मजे से सफल हो सकते हैं। केवल यह एक बात कृपा करके जान लो। एक होती है रूचि और दूसरी होती है आवश्यकता। शरीर को भोजन करने की आवश्यकता है। वह तन्दुरूस्त कैसे रहेगा, इसकी आवश्यकता समझकर आप भोजन करें तो आपकी बुद्धि शुद्ध रहेगी। रूचि के अनुसार भोजन करेंगे तो बीमारी होगी। अगर रूचि के अनुसार भोजन नहीं मिलेगा और यदि भोजन मिलेगा तो रूचि नहीं होगी। जिसको रूचि हो और वस्तु न हो तो कितना दुःख ! वस्तु हो और रूचि न हो तो कितनी व्यथा ! खूब ध्यान देना कि हमारे पास जानने की, मानने की और करने की शक्ति है। इसको आवश्यकता के अनुसार लगा दें तो हम आराम से मुक्त हो सकते हैं और रूचि के अनुसार लगा दें तो एक जन्म नहीं, करोड़ों जन्मों में भी काम नहीं बनता। कीट, पतंग, साधारण मनुष्यों में और महापुरूषों में इतना ही फर्क है कि महापुरूष माँग के अनुसार कर्म करते हैं जबकि साधारण मनुष्य रूचि के अनुसार कर्म करते हैं। जीवन की माँग है योग। जीवन की माँग है शाश्वत सुख। जीवन की माँग है अखण्डता। जीवन की माँग है पूर्णता। आप मरना नहीं चाहते, यह जीवन की माँग है। आप अपमान नहीं चाहते। भले सह लेते हैं, पर चाहते नहीं। यह जीवन की माँग है। तो अपमान जिसका न हो सके, वह ब्रह्म है। अतः वास्तव में आपको ब्रह्म होने की माँग है। आप मुक्ति चाहते हैं। जो मुक्तस्वरूप है, उसमें अड़चन आती है काम, क्रोध आदि विकारों से।

9.6.10

साईं तुझे सुमिरन का वरदान जो मिलजाए
मुरझाई कलि दिल की एक आन में खिल जाये
सुनते है तेरी रहमत दिन रात बरसती है
एक बूंद जो मिल जाती मेरी तकदीर बदल जाती
साईं तुझे सुमिरन -----------

ये मन बड़ा चंचल है चिंतन में नहीं लगता
जितना इसे समझावो उतना ही मचल जाता
हे मानव तू दिल से साईं नाम का सुमिरन कर
दोसो से भरे जीवन का खता बदल जाये
साईं तुझे सुमिरन ---------

साईं इस दिल की बस एक तमन्ना है
तू सामने हो मेरे और प्राण निकल जाये
साईं तुझे सुमिरन का वरदान जो मिल जाये
सच कहता हु बाबा मेरी तकदीर ही बदल जाये
ॐ जय साईं राम

8.6.10

साईं जी.....

"साईं बाबा" तेरी चोखट को अपना मुकदर मानता हूँ,
साईं नाथ तुमसे तेरी सेवा की भीख मांगता हूँ,
अगर मिले सेवा तो उसको अपना नसीब मानता हूँ | 

7.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

शरीर की इन्द्रिया -मन -बुद्धि इन सभी की अपनी सीमाएं है, जिनके लिए आत्मा एक विषय है I आत्मा स्वयं अनादी और अभोक्ता होते हुए भी, इनके कारण कष्ट भोगती है जो कर्मो के फलस्वरूप उत्त्पन्न होते है I
(CI 73 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

6.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

ज्ञान से अज्ञान मिटता है I यधपि मानव का मुख्य ध्येय है ज्ञान और अज्ञान से परे जाकर शुद्ध स्वरुप में समा जाना I
(CI 69 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

5.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

संत जो यथार्थ मे ईशवर के अवतार होते है, जो बन्धनो व इच्छाओ से मुक्त होते है, वे संसार के उत्थान के लिए बिना किसी स्वार्थ के प्रकट होते है I
(CI 62 Adhaya 5 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria )

4.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

जिन श्रद्धावान पुरुषो को ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति हो गई है, वे ही आत्मतत्व को भोगने के योग्य है I सच जानो ऐसे भक्त ही सोभाग्यशाली हैं I
(CI 66 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)

2.6.10

श्री साईं सच्चरित्र संदेश

ऐसे मानव शरीर में  समय संतो की कथाओ का श्रवण करने मे उनका स्मरण कर श्रेष्ठ गुण प्राप्त करने मे लगाया जाता है, केवल वही समय का सदुपयोग कहा जाता है I वाकी का समय तो व्यर्थ ही गवांया जाता है I
(CI 27 Adhaya 08 Sai Sachitra Dr R.N.Kakria)